हिन्दी ज्ञान
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शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019
सोमवार, 17 सितंबर 2018
हिन्दी और भारतीय भाषाएँ
आज़ादी
की लड़ाई में राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए हिन्दी व भारतीय भाषाओं ने महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभाई और जनमानस को एकता के सूत्र में पिरोए रखने का काम किया। स्वतंत्रता
पूर्व हिन्दी में प्रकाशित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने भारतीयों में आज़ादी का ज़ज़्बा
भरा और संघर्ष के लिए प्रेरित किया। लोकमान्य तिलक देवनागरी को ‘राष्ट्रलिपि’ और
हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ मानते थे। उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के दिसम्बर, १९०५ के
अधिवेशन में कहा था-
”भारतवर्ष
के लिए एक राष्ट्रभाषा की स्थापना करनी है, क्योंकि सबके लिए समान भाषा राष्ट्रीयता का महत्त्वपूर्ण
अंग है। समान भाषा के द्वारा हम अपने विचार दूसरों पर प्रकट करते हैं। अतएव यदि आप
किसी राष्ट्र के लोगों को एक-दूसरे के निकट लाना चाहें तो सबके लिए समान भाषा से
बढ़कर सशक्त अन्य कोई बल नहीं है।“
१९१७
में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद महात्मा गाँधी ने गुजरात प्रदेश के भड़ौच
गुजरात शिक्षा परिषद् के अधिवेशन में अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध किया
और हिन्दी को भारत की भाषा बनाने पर ज़ोर दिया। उन्होंने देश में शिक्षा माध्यम पर
चर्चा करते हुए हिन्दी भाषा की अनिवार्यता पर बल दिया था। उन्होंने कहा था - ”अगर
मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो, तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए हमारे लड़के-लड़कियों की शिक्षा
बन्द कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूँ।“
आज़ादी
मिलने के पश्चात १४ सितम्बर १९४९ को संविधान की भाषा समिति ने हिन्दी को राजभाषा
के पद पर आसीन किया क्योंकि भारत की बहुसंख्यक जनता द्वारा हिन्दी भाषा का प्रयोग
किया जा रहा था। आज़ादी के बाद भले ही हिन्दी को राजभाषा का दर्ज़ा दे दिया गया
लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में हिन्दी की स्थिति बेहतर नहीं हो पाई है। दरअसल संविधान
की भाषा समिति ने हिन्दी विरोध की वज़ह से पंद्रह वर्षों के लिए अँग्रेजी को सहभाषा
का स्थान दे दिया और यह तय किया किया गया कि इस काल अवधि में देश में हिन्दी के
प्रचार-प्रसार के लिए व्यापक कार्य किए जाएँगे। लेकिन आज स्थिति यह है कि अँग्रेजी
ही इस देश की राजभाषा है और हिन्दी सहभाषा। राजनीति की भाषा और भाषा की राजनीति ने
मिलकर इस देश में हिन्दी व भारतीय भाषाओं की दशा और दिशा तय कर दी है।
भारतीय
समाज में भाषा का संबंध प्रत्यक्ष रूप से माँ से जोड़कर देखा जाता है क्योंकि एक
शिशु जो पहला शब्द बोलता है, वह
अमूमन अपनी माँ से सीखता है और वह उसकी मातृभाषा कहलाती है। १९५६ में भारतीय
संविधान के अनुच्छेद ३५० क. के अनुसार यह निर्देश दिया गया कि प्राथमिक शिक्षा
मातृभाषा में होनी चाहिए क्योंकि यह शिशु के सहज विकास के लिए अनिवार्य है। दुनिया
के प्रत्येक व्यक्ति का विकास उसके सामाजिक अवस्थान के अनुरूप होता है। एक बालक
जिस सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण में रहता है, उसी के अनुरूप
उसका व्यक्तित्व ढलता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की एक रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश
बच्चे विद्यालय जाने से घबराते हैं क्योंकि वहाँ जिस भाषा में शिक्षा प्रदान की
जाती है उस भाषा का प्रयोग उनके घरों में नहीं किया जाता। अनुसंधान के आधार पर यह
बात उभरकर आई है कि शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया मातृभाषा में तीव्र गति से होती है
क्योंकि बच्चों के लिए उस भाषा के शब्द ज्यादा परिचित होते हैं। अन्य भाषा में
पढ़ने के कारण उन्हें दोहरा बोझ उठाना पड़ता है जिससे बच्चों पर अतिरिक्त दबाव की
सृष्टि होती है। परिणामस्वरूप उनकी पठन-क्षमता क्षीण होती जाती है। इसे
“न्युरॉलोजिकल थियरी ऑफ लर्निंग” कहते हैं। आज भारतीय समाज में अँग्रेजी भाषा
प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है जिसके कारण माता-पिता हिन्दी व भारतीय भाषाओं की
अवहेलना करते हैं। हिन्दी या भारतीय भाषा में शिक्षा ग्रहण करना निम्न स्तर की बात
मानी जाती है। दरअसल यदि आप अँग्रेजी नहीं जानने के कारण अशिक्षित माने जा रहे हैं
तो आपके पास कोई दूसरा विकल्प शेष नहीं रह जाता है।
भारत
के अलावा दुनिया भर में इस बात को स्वीकार किया गया है कि यदि विद्यार्थी अपनी मातृभाषा (हिन्दी व विभिन्न भारतीय भाषा) में अध्ययन करता है तो
यह उसके शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को उन्नत करता है। यह शिक्षक
की ज़िम्मेदारी है कि वह विद्यार्थी की मातृभाषा को प्रोत्साहित
करे। भारत के सरकारी विद्यालयों में एक विद्यार्थी मूलत: तीन भाषाओं को सीखता है, हिन्दी, भारतीय भाषा और अँग्रेजी। अँग्रेजी माध्यम के
विद्यालयों की स्थिति अलग है, यहाँ विद्यार्थी को शुरू से ही प्रथम भाषा के रूप में अँग्रेज़ी सिखाई जाती है तथा हिन्दी
या भारतीय भाषाओं को द्वितीय एवं तृतीय भाषा के रूप में स्थान
दिया जाता है। आज भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण अँग्रेजी के साथ-साथ किसी अन्य विदेशी भाषा को भी पढ़ाने का प्रचलन बढ़ गया है। ऐसी परिस्थिति
में हिन्दी या भारतीय भाषाओं का महत्त्व घटता जा रहा है। भारत के कई शहरों के निजी
विद्यालयों में विद्यार्थियों को तृतीय
भाषा के विकल्प के रूप में जर्मनी, फ्रेंच, स्पेनिश आदि विदेशी भाषाएँ मुहैया करवाई जा रही हैं। कोई भी नई भाषा सीखना
बुरा नहीं होता और वैसे भी हम भारतीय भाषाओं के आधार पर बहुत समृद्ध हैं। एक औसत
भारतीय कम-से-कम तीन भाषाओं में अच्छी तरह से पढ़, लिख और समझ
सकता है।
यह
तर्क बेहद मज़बूती के साथ दिया जाता है कि विज्ञान और तकनीक की भाषा अँग्रेजी ही है
और आर्थिक वैश्वीकरण के इस युग में अँग्रेजी भाषा का महत्त्व स्वीकार करने में
किसी परहेज की जरूरत नहीं है। बनिस्पत इसके कि दुनिया के गिने-चुने देश प्रशासन, शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, स्वास्थ्य-शिक्षा, व्यावसायिक गतिविधियाँ चलाने के
लिए अँग्रेजी भाषा का इस्तेमाल करते हैं और वहीं दूसरी ओर चीन, जापान, जर्मनी, थाईलैंड, फ्रांस, तुर्की, ईरान आदि
देशों में कोई भी नागरिक बिना अँग्रेजी भाषा जाने डॉक्टर,
वकील, इंजीनियर, शिक्षक आदि बन सकता है।
परन्तु भारत में योग्य से योग्य व्यक्ति भी बिना अँग्रेजी भाषा के ज्ञान के किसी
भी ऊँचे ओहदे तक नहीं पहुँच सकता है। इसका मुख्य कारण यह है कि देश की राजनीति ने
अँग्रेजी को महत्त्वपूर्ण बना दिया है ताकि प्रशासन और सत्ता की भाषा आम जनता से
दूरी बनाए रखे और अपने अभिजात्य संस्कृति की रक्षा कर सके। भारत में अँग्रेजी
जानने वालों की संख्या बमुश्किल से पाँच प्रतिशत के आसपास होगी फिर भी हिन्दी और
अन्य भारतीय भाषाओं पर अँग्रेजी के इस दबदबे का कारण हमारी गुलाम मानसिकता और भाषा
के नाम पर संकीर्ण होने का भाव प्रमुख है।
महात्मा
गाँधी ने कहा था – ’अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता है
जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता-समझता है।’
यह
यथार्थ है कि वही भाषा जीवित रहेगी जो
रोज़गार और बाज़ार की भाषा बनेगी किन्तु एक दूसरा पक्ष भी है जो यह कहता है कि किसी
भी भाषा के जीवित रहने की पहली शर्त है कि उस भाषा-संस्कृति को मानने वाले जन-समूह
की चेतना में अपनी भाषा के प्रति गहरा लगाव और आत्मीय भाव हो और उसे बोलने में सहज
गौरव की अनुभूति हो।
-सौमित्र आनंद
बुधवार, 30 मई 2018
सूक्ष्म शिक्षण पर कार्यशाला का संचालन
पश्चिम बंगाल प्रथमिक बोर्ड द्वारा
आयोजित द्वि-वार्षिक डी.एल.एड
(एन.सी.टी.ई. द्वारा अनुमोदित) कार्यक्रम विभिन्न प्राथमिक विद्यालयों में
कार्यरत अप्रशिक्षित शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए प्रारंभ किया गया है। इस
प्रशिक्षण के दौरान शिक्षकों को शिक्षण-अधिगम-प्रक्रिया (Teaching learning process) के विभिन्न आयामों की
जानकारी दी जाती है जिसका प्रयोग शिक्षक अपनी कक्षाओं में करते हैं और
अध्यापन-कार्य को सुचारू रूप से संचालित करते हैं। पश्चिम बंगाल सरकार ने शिक्षाविदों
तथा एन.सी.टी.ई. और इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के प्रतिनिधियों
के साझा प्रयास से डी.एल.एड का पाठ्यक्रम तैयार किया है जिसके अंतर्गत पाँच
तात्विक प्रश्नपत्रों, साथ मेथड प्रश्नपत्र और तीन प्रायोगिक प्रश्नपत्रों का
निर्माण किया गया है। अलग-अलग वर्ष के पाठ्यक्रम के अनुसार प्रत्येक प्रश्नपत्र के
लिए पाठ्य सामग्रियाँ तैयार की गई हैं तथा एन.सी.टी.ई. द्वारा अनुमोदित भी है।
मैं, हिन्दी भाषा-विशेषज्ञ के रूप २०१३ से ही
इस कार्यक्रम से जुड़ा हुआ हूँ और पश्चिम बंगाल प्राथमिक शिक्षकों के कार्यशालाओं
का संचालन कर रहा हूँ। मैंने प्रथम वर्ष छह दिवसीय दो कार्यशालाओं का संचालन करते
हुए शिक्षण से जुड़े अलग-अलग अनुभव प्राप्त किए। मैंने शिक्षकों को बोर्ड द्वारा
तैयार किए गए पाठ्यक्रम से अवगत करवाया और मातृभाषा शिक्षण की विविध पद्धति,
पाठ-योजना, सूक्ष्म पाठ-योजना, सूक्ष्म-शिक्षण की धारणा, मातृभाषा अध्ययन में
दृष्य-श्रव्य माध्यमों का प्रयोग, मूल्यांकन-पद्धति आदि कई विषयों पर लम्बी
चर्चाओं द्वारा प्रशिक्षण-कार्यक्रम का संचालन किया।
डी.एल.एड कार्यक्रम के अंतिम भाग में शिक्षकों
को सूक्ष्म-शिक्षण पर शिक्षण-अभ्यास करवाया गया जिसके अंतर्गत प्रत्येक शिक्षक को सूक्ष्म
पाठ योजना तैयार कर छह से आठ मिनट की कक्षा का संचालन करना पड़ा। इस तरह शिक्षकों ने
अध्यापन संबंधी आधुनिक तकनीकों की बारीकियों को भलीभाँति समझा और उसका प्रयोग भी किया।
इस वर्ष शिक्षकों
द्वारा २६ मई से २९ मई, २०१८ तक सूक्ष्म शिक्षण अभ्यास कक्षा का आयोजन हेस्टिंग हाउस
के सी.डब्ल्यू.पी.टी.टी.आई. में करवाया गया जहाँ लगभग सौ शिक्षकों ने कार्यशाला में
भाग लिया। चार दिवसीय प्रशिक्षण कक्षा में शिक्षकों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। शिक्षकों
ने अत्यंत उत्साह के साथ सूक्ष्म-शिक्षण पर आधारित शिक्षण अभ्यास कक्षाओं का संचालन
किया और रंग-बिरंगे TLM (शिक्षण-अधिगम
सामग्री) तैयार किए जिनके प्रयोग से कक्षा-अध्यापन का कार्य अत्यंत रोचक और
ज्ञानवद्र्धक हो जाता है।
प्रत्येक वर्ष की तरह इस वर्ष भी मैं कई
शिक्षकों से मिला जिसमें हर उम्र की मौजूदगी थी, किन्तु युवाओं की भागीदारी और
उनका जोश एक बेहतर शिक्षण माहौल की उम्मीद जगा रहा है। आधारिक संरचना और व्यवस्था
की कमी के बावज़ूद इन युवा शिक्षकों में अपने विद्यार्थियों के भविष्य के प्रति
गहरी चिन्ता और उनके लिए मानवीय, संवेदनशील और लोकतांत्रिक शैक्षणिक माहौल बनाने
की गहरी बेचैनी मुझे अत्यंत सुखद लगी। कार्यशाला का समापन मैंने मदन कश्यप की एक
कविता से की –
अभी भी बचे हैं
कुछ आखिरी बेचैन शब्द
जिनसे शुरू की जा सकती है कविता
बची हुई हैं
कुछ उष्ण साँसे
जहाँ से संभव हो सकता है जीवन
गर्म राख़ कुरेदो
तो मिल जाएगी वह अंतिम चिंगारी
जिससे सुलगाई जा सकती है फिर से आग।
रविवार, 4 फ़रवरी 2018
पर्यावरण बचाओ
महात्मा गाँधी ने कहा था कि हमारा भविष्य हमारे वर्तमान पर निर्भर करता है। आज हमारी धरती कई तरह की समस्याओं का सामना कर रही है और अपने वज़ूद को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है। इस धरती पर इंसान एकमात्र ऐसा जीव है जो इसकी रक्षा अपने विवेक के इस्तेमाल से कर सकता है।
मैत्री वाजपेयी और रमीज़ इस्लाम ख़ान द्वारा लिखित और निर्देशित लघु फ़िल्म "कार्बन" ज़रूर देखें और सोचे कि क्या वाक़ई हम अपनी धरती को छोड़कर किसी और ग्रह पर जाकर बस सकते हैं यदि नहीं तो फिर इसे बचाने की कोशिश आज से ही क्यों न शुरू कर दें...
विमलेश त्रिपाठी द्वारा रचित कविता "गाय-कथा" पर आधारित कविता विडीओ
शनिवार, 6 जनवरी 2018
व्यक्ति और समाज
व्यक्ति की पहचान उसके सामाजिक अवस्थान से होती है जिसमें उसकी शिक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। शिक्षा का उद्देश्य इंसान को बेहतर इंसान बनाना होता है ताकि उसमें तार्किक विश्लेषण और मानवीय संवेदना का सहज विकास संभव हो सके।
अब हमें इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना होगा कि क्या शिक्षा का उद्देश्य व्यवस्था के लिए सिर्फ मशीन तैयार करना है या फिर ज़िंदगी के लिए इंसान...
रविवार, 15 अक्तूबर 2017
आत्मदीपो भव
गौतम बुद्ध ने कहा है - आत्मदीपो भव
जब जब बाहर आलोक कम होता दिखे, अपने भीतर अपनी चेतना का आलोक जलाएँ। इस आलोक में सबकी आज़ादी, सबकी बराबरी और सबसे भाईचारा जगमग कर उठे...
आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ
सोमवार, 26 जून 2017
पिता
मैंने अपने एक विद्यार्थी को निशांत की कविता 'पिता' पढ़ने को दी क्योंकि उसे विद्यालय की काव्य आवृत्ति प्रतियोगिता में हिस्सा लेना है। मैं उस विद्यार्थी के साथ स्कूल की लाइब्रेरी में बैठा उसी कविता को पढ़ रहा था और वहीं मेरी एक छात्रा पुस्तक-समीक्षा के लिए पुस्तक पढ़ रही थी। उसने मुझसे पूछा, "सर आप क्या पढ़ रहे हैं?" मैंने उसे कविता के बारे में बताया तो उसने ज़िद किया कि मैं उस कविता की आवृत्ति करूँ। मैंने कविता पढ़ी। कविता समाप्त करने के उपरांत जब मेरी नज़र उस छात्रा पर पड़ी तो मैंने पाया कि उसकी आँखें भर आई हैं। उसने बताया कि उसके पिता नहीं हैं...मैंने उसे सांत्वना देकर कक्षा में भेज दिया। उसके जाने के बाद मैंने महसूस किया कि ईमानदारी से लिखी गई एक अच्छी कविता सच में आपको अंदर तक छू जाती है...धन्यवाद कवि निशांत।
कविता : पिता कुछ कविताएँ, कवि : निशांत , आवृत्ति : सौमित्र आनंद
मंगलवार, 20 जून 2017
कबीर : बग़ावत के सबसे बड़े ब्रांड
अकेले बैठकर बहुत देर तक सोचता रहा कि आखिर अपनी कक्षा में कबीर को पढ़ाने से पहले उनका परिचय अपने विद्यार्थियों को कैसे दूँ... क्या बताऊँ आज की पीढ़ी को कि कबीर कौन थे। फिर सोचा कि क्यों न अपने विद्यार्थियों को यह बताया जाए कि कबीर होना क्या होता है...कबीर बग़ावत के सबसे बड़े ब्रांड हैं क्योंकि उन्होंने अपने समय में हर तरह के अन्याय, कुरीति, भेदभाव और असमानता का खुलकर विरोध किया। कबीर ने अपने समय में प्रश्न पूछने की अहमियत को बताया और इनसानियत को सबसे बड़ा धर्म माना।
गुरुवार, 18 मई 2017
शैक्षणिक सत्र - 2017-2018
प्रिय विद्यार्थियो,
आप सबका नए शैक्षणिक
वर्ष २०१७-२०१८ में हार्दिक स्वागत है। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी हम अपनी कक्षाओं
को ज्ञान की प्रयोगशालाओं में परिवर्तित करने की कोशिश करेंगे ताकि हमारे ज्ञान,
अनुभव और कौशल का सम्पूर्ण विकास संभव हो सके। जीवन में ज्ञान प्राप्ति का महत्त्व
तब बहुत ज्यादा बढ़ जाता है जब हमारे चारों ओर अज्ञानता का अंधेरा घना हो जाता है
क्योंकि अज्ञानता के अंधेरे में मानव का विवेक और उसकी इनसानियत के खत्म हो जाने
का खतरा अधिक बढ़ जाता है।
मानव जीवन में आने
वाली हर कठिनाई का सामना बुद्धि-बल से किया जा सकता है क्योंकि ज्ञान के द्वारा
हममें साहस, धैर्य, आत्मबल और तर्क-शक्ति का विकास होता है। इनसान जब आदिमकाल में
जंगलों में रहता था और सभ्यता से बहुत दूर था तब उसने अपने बुद्धि और कौशल का
इस्तेमाल कर आग, पहिया, पशुपालन, खेती आदि का विकास करते हुए परिवार, समुदाय,
समाज, गाँव और शहर तक का लम्बा किन्तु सफल सफर तय किया।
इनसानी सभ्यता के इस यात्रा में उसके ज्ञान, बुद्धि, कौशल और तर्क-शक्ति ने भरपूर सहयोग दिया। आज हम विज्ञान के युग में हैं और तकनीक ने मानव जीवन को अत्यंत सहज और आरामदायक बना दिया है किन्तु इनसानी दिमाग ने आराम नहीं लिया है। वह हर नए दिन के साथ नए आविष्कारों की खोज में लगा हुआ है ताकि इनसानी जीवन को और ज्यादा सुखद और सुरक्षित बनाया जा सके।

मेरा सभी विद्यार्थियों
से विनम्र अनुरोध है कि यदि आपके जीवन में असफलता का दौर लम्बा हो जाए तो अपने सहज
ज्ञान, बुद्धि, कौशल और तर्क-शक्ति का उपयोग कर, अपने अंधेरे को खत्म करने का
प्रयास करें और तब तक हार न माने जब तक सफलता रूपी रोशनी की किरण आप तक न पहुँच
जाए।
सोमवार, 27 फ़रवरी 2017
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